Saturday, May 30, 2015

गर्मी बहुत है।

गर्मी बहुत है। 

आग   लगी है धरती प्यासी पानी को तरसे लोग 
फिर भी न जाने पानी कीमत 
क्यों प्यासे मरते लोग 
जीना है तो धरती  को भी  जीवन दो 
हरियाली न ख़त्म करो 
गर्मी को तपिश को  कम  लो 
गर्मी बहुत है। 
न भागो कूलर और फ्रिज की और थोड़ा प्रकृति से नाता जोड़ो 
पेड़ो को काटोगे और टिशू पेपर और कागज को बर्बाद करोगे 
तो बोलो बेचारे काटते पेड़ कैसे तुम्हे आबाद करेंगे 
गर्मी बहुत है। 
तुम बैठ घरो में कहते हो उन चिड़ियों की सोचो जो दाना खोज  रही 
गर्मी बहुत है।  सिर्फ अपनी नही दुनिआ की सोचो और धरती की सोचो 
 हरियाली होगी तो ही खुशहाली होगी 
और इस गर्मी से राहत होगी 

Community Radio







निश्चित भू-भाग के अन्दर रहने वाले समुदाय विशेष के लिए समुदाय का समुदाय के लिए और समुदाय के द्धारा सामुदायिक रेडियो वह माध्यम है जो स्थानीय जरूरतों को ध्यान में रखकर कार्यक्रमों का निर्माण और प्रसारण करता है जिसमे समुदाय के सदस्यों की सक्रिय सहभागिता होना आवश्यक है यानि रेडियो कार्यक्रमों का निर्माण और प्रसारण समुदाय के लिए समुदाय के द्वारा समुदाय का प्रसारण करना होता है। यह एक ऐसा मंच प्रदान करता है जो विकास प्रक्रिया में तो सहायक होने के साथ स्थानीय समस्याओं को सामने लाने में भी सहायक होता है।

भारत में सामुदायिक रेडियो की परिकल्पना काफी पहले से चल रही थी, लेकिन इसकी विधिवत शुरूआत 1995 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले से हुयी 2002 और 2006 में भारत सरकार ने सामुदायिक रेडियो खोलने हेतु नीतिगत दिशा निर्देश पारित किये। यह प्रजातंत्रिक प्रणाली के आधार पर कार्य करता है 50-100 वाट के कम शक्ति वाले ट्रांसमीटर से अपने कार्यक्रमों से स्थानीय भाषा में ही स्थानीय लोगों की समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करता है। 

Friday, May 29, 2015

Beti bachao Beti prao




My First Artical With name oF Dr. sadhana Srivastava..

Tuesday, May 26, 2015

Lappo

लप्पो 
लप्पो की तलाश आप हर  आम लड़की में कर  सकते आपके आस पास बहुत लप्पो मिल जाएगी आपको क्या लगता है 

ज़िंदगी धुप छाव का का खेल हो गयी


ज़िंदगी धुप छाव का का खेल हो गयी 
ज़िंदगी धुप छाव का का खेल हो गयी 
जिसमे कभी जीत और हार का मेल  हो गयी 
सुबह के उगते सूरज के साथ हौसलों की शुरुआत की 
 और शाम के डूबते सूरज ने कुछ उदासी वाली शाम दी 
लेकिन तारीफ के काबिल है कुदरत जिसने ये आस दी 
कल रात के बाद फिर सुबह होगी और सूरज की रौशनी से नई शुरुआत होगी
ज़िंदगी धुप छाव का का खेल हो गयी 
जिसमे कभी जीत और हार का मेल  हो गयी 
बारिशो के पानी ने दिल को दिया सकून 
किसी खेत में फसलों की शुरुआत होगी 
और रास्तों ने सिखाया की मुश्किले हो 
उॅचे नीचे हो या समतल  मंजिलो की तलाश कभी तो पूरी होगी 
ज़िंदगी धुप छाव का का खेल हो गयी 
जिसमे कभी जीत और हार का मेल  हो गयी 
 जो प्यार से मिला दोस्ती की शुरुआत हो 
और जो दुशमन बने उनसे नई जंग और चुनौतियों का सामना करने सीख मिल गयी 
ज़िंदगी धुप छाव का का खेल हो गयी 
जिसमे कभी जीत और हार का मेल  हो गयी 

Monday, May 25, 2015

Tipes for become No 1



Life Is not essay every movement we faced challenge but it is depend on us how we face it............ Life is just Like A road some time Smooth And Some other time Up and Down.....Every one Says My Problem is big ,,,,,it is not true god gives good chance but many People not found it   ...............so believe in god And Do hard work






Thursday, May 7, 2015

अपना मांगे हक - महिलाओ के घरेलू श्रम को मिले मान्यता


अपना मांगे हक - महिलाओ के घरेलू श्रम को मिले मान्यता
 साधना श्रीवास्तव
महिला एवं पुरूष दोनों समाजरूपी गाड़ी के दो पहिए हैं। महिलाओं के विकास के बिना किसी भी राष्ट्र का विकास संभव नहीं है। महिलाएँ परिवार, समाज एवं सुदृढ़ राष्ट्र की रचना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।  महिला मानव परिवार, सभ्यता एवं संस्कृति का आधार स्तम्भ है। महिलाओं की स्थिति से व्यक्तिगत परिवार, समाज एवं राष्ट्र की सामाजिक आर्थिक स्थति प्रभावित होती है। महिलाएं जनसंख्या का आधा भाग है। अतः महिलाओं का विकास अत्यन्त आवश्यक है। इसी दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए भारतीय संविधान में महिलाओं के उत्थान के लिए शिक्षा एवं रोजगार से सम्बन्धित समान अवसर, समाज आजीविका, समान कार्य के समान भुगतान के अधिकार दिए गए हैं। इस प्रकार महिलाओं को विकास की मुख्य धारा से जोड़े बिना किसी समाज, राज्य एवं देश के आर्थिक सामाजिक और राजनैतिक विकास की कल्पना नहीं की जा सकती है। महिला सशक्तिकरण भारत में महिलाओं की स्थिति आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से काफी सुधार आया है। स्त्री शिक्षा हेतु सरकार की विभिन्न योजनाओं ने स्त्री साक्षरता में वृद्धि की है। इसके अतिरिक्त अनुसूचित जाति -जनजाति हेतु आरक्षण की व्यवस्था, चिकित्सा, बैकिंग, मीडिया आदि सभी क्षेत्र महिलाओं के प्रभुत्व से अछूते नहीं है। जिससे उनकी भूमिका में बढोत्तरी हो, तो वही दूसरी ओर सकल घरेलू उत्पाद में महिलाओं के घरेलू श्रम का काई ठोस पैमाना नहीं तो असंगठित क्षेत्र में कामगारों और महिला श्रम के प्रति भेदभाव है। परंतु हाल ही में अनेक समाचार पत्रों की सुर्खियों में आयी एक खबर ने हलचल मचा दी साथ घरेलू महिलाओं की स्थिति पर एक बार फिर विचार करने की आवश्यकता समझ आयी खबर थी कि सर्वोच्च न्यायलय ने महिलाओं के घरेलू श्रम को सही मुआवजा और हक दिलाने की बात कही महिलाओं के घरेलू श्रम के कानूनी हक पर आम जनता क्या विचार रखती है यह जानने को जब मैं समाज में निकली तो जनता उद्गार कुछ इस तरह से निकले।


कानपुर के पास उन्नाव के पास की रहने वाली और कानपुर के रामा विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग की मोनिका सिंह का कहना है कि हमारे देश में महिलाओं को देवियों का स्वरूप माना जाता हैं। इनकी तुलना आदिशक्ति से की जाती हैं। इन्हे गृह लक्ष्मी भी कहा जाता हैं परन्तु जब बात इनके हक स्वास्थ्य और समाजिक मान कि आती हैं तब हमारे देश में ऐसा कोई भी कानून नहीं हैं जो इन्हे इनके किये गये श्रम की आर्थिक मान्यता दिला सकें।
हमारे देश में 16 करोड महिलाओं का मुख्य काम घर की जिम्मेंदारियां निभाना हैं पर इस एवज में इन्हे कोई भी मेहनताना नहीं मिलता है और ना ही हमारे देश की अर्थव्यवस्था में कोई भागीदारी मिलती हैं।
जब भी इस विषय पर बात हुई तब दो वर्गो में एक बड़ी बहस हुई हैं एक वर्ग वह है जो  इसे एक भावनात्मक काम के रूप में देखते हैं और दूसरे वो जो इसे महिलाओं की आर्थिक मान्यता के रूप में देखते हैं पर कभी कोई ठोस नतीजा नही निकला है।
 ऐसे कई मामले सामने आये जिस में घरेलू महिलाओं की सडक दुर्घटना में मृत्यु हो गई लेकिन उनको कोई मुआवजा नहीं मिला क्योकि हमारे देश में ऐसा कोई कानून नहीं हैं।
सन् 1947 से बहुत बदलाव आये हैं अब एक और बदलाव कि जरूत हैं जो घरेलू महिलाओं को उनका हक और उनके द्वारा किये गये श्रम की आर्थिक मान्यता दिलाने की एक पहल होगी। 
इस बदलाव कि पहल में हर महिला को भाग लेना होगा और अपने हक के लिये आवाज उठानी होगी।




वही कानून के जानकार और विधि विभाग, बी0बी0डी0 यूनिवर्सिटी लखनऊ के श्री जगदीश प्रसाद का कहना है कि भारत, स्वतन्त्रता के बाद भले ही दुनियां का सबसे बड़ा लोकतन्त्र बनकर उभरा है और इसके समस्त नागरिकों को देश के सर्वोच्च कानून (संविधान) के द्वारा बिना किसी लिंगीय भेदभाव के सामाजि, आर्थिक व राजनैतिक न्याय व स्वतन्त्रता प्रदान की गयी किन्तु व्यावहारिक रूप से आज भी विशेषकर महिलाओं के सम्बन्ध में प्राचीन सामाजिक व्यवस्था ही जारी है जिसके अन्तर्गत देश की लगभग आधी आबादी दूसरे (पुरूष) पर आर्थिक रूप से निर्भर है। निश्चित रूप से भारत जैसे पारम्परिक एवं धार्मिक देश में महिला को परिवार की धुरी माना जाता है किन्तु उसके दिन भर के रोजमर्रा व घरेलू कार्य की वास्तविक मूल्य न तो सामाजिक रूप से मान्य है और न निर्धारित ही है। आधुनिक मानवतावादी युग में सम्पत्ति का अधिकार एक मानव अधिकार तथा श्रम के बदल पारिश्रमिक पाना एक मौलिक अधिकार है फिर भी घरेलू महिला के द्वारा घर के अन्दर किये गये कार्य का उचित पारिश्रमिक किसी भी कानून के द्वारा संरक्षित नहीं किया गया है तथा राष्ट्र के सकल घरेलू उत्पाद(जी0डी0पी0) में शामिल नहीं किया जाता है। यद्यपि कि हिन्दू विवाह अधिनियम एवं दण्ड प्रक्रिया संहिता मंे उसे अपने पति या संरक्षक से भरण-पोषण पाने का अधिकार दिया गया है तथा संविधान के नीति निर्देशक तत्व में राज्य को महिला के स्वास्थ्य एवं उचित पोषण के लिए योजना बनाने के लिए निर्देशित किया गया है किन्तु निजी स्वतन्त्रता के रूप में अपनी आर्थिक निर्भरता के लिए आज भी महिलाओं को दूसरों पर आश्रित रहना पड़ रहा है तथा उसके समस्त श्रम का पारिश्रमिक केवल भावनात्मक मूल्य तक ही सीमित है लेकिन अब समय आ गया है कि सरकार को घरेलू महिला(हाउस वाइफ) के पारिश्रमिक को एक विधिक अधिकार के रूप में सुरक्षित रखने के लिए कानून बनाये ताकि संविधान के उद्देश्य- सभी व्यक्तियों को सामाजिक व आर्थिक न्याय प्रदान किया जा सके तथा गरिमामय जीवन के साथ हर क्षेत्र मंे पुरूष के समान ही महिला की भी भागीदारी एवं योगदान सुनिश्चित हो सके।

अंत में यही कहा जा सकता है कि हमेशा खुश रहने वाली, चुपचाप अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह करने वाली घरेलू महिलाओं के द्वारा किये गये कार्यो का उन्हें कोई प्रतिकार नहीं मिलता है वह कभी श्रमिक की तरह हड़ताल नहीं कर सकती है वरना तो दुनिया रूक सी जायेगी । पुरूषसत्तामक समाज हिल जायेगा। घरेलू कार्यो  और घर की जिम्मेदारी को किस रूप में देखा जाये यह आज भी विवादित प्रश्न है अधिकांस घरेलू महिलाओं का सम्पूर्ण जीवन सहने में बीत जाता है बिना कुछ बोले मुश्किलों में रहने की आदत हो जाती है। घरेलू श्रम की उउपेक्षा और महिलाओं को सामाजिक आर्थिक न्याय दिला पाना अभी भी भारत में चुनौतीपूर्ण कार्य है जिसकी प्रमुख वजह सामाजिक परिवेश और इस दिशा में पर्याप्त कानूनों का अभाव है अभी भी घरेलू काम को हक दिलाने की दिशा में समाज दो वर्गो में बॅट गया है एक इनके अधिकारों की बात करता है तो दूसरा वर्ग कहता है कि घर की देखभाल, परिवार की सेवा और रिश्तों का मान तो नारी सौंदर्य है भावनाए और नारी का गहना है इस वर्ग का यह भी कहना है कि माॅ, बेटी ,पत्नी ,बहन के काम को पैसों में क्यों मापा जाये क्या जरूरत है इन्हें घरेलू कार्यो के मुआवजे की लेकिन शायद यह वर्ग यह भूल जाता है कि महिलाओं को प्यार और समर्पण की प्रतिमूर्ति बनाकर चौराहे की मूर्ति बनाने की जरूरत नहीं कि अपने दुख दर्द मिटाने तो माॅ, बेटी ,पत्नी ,बहन और कुछ देर में ही खुद प्रसन्न हो उसे सर्दी, गर्मी और बारिश के मौसम को अकेला छोड़ देना बल्कि जरूरत है घरेलु क्षम केे महत्व को समझने की और महिलाओं सुरक्षा ,अधिकारों उन्हें सामाजिक, आर्थिक और कानूनी संरक्षण देने की है क्योकि वह बिखरे परिवार को एक माला की तरह पिरोती है वो इतनी कुशलता से घर सम्हाले रहजी है  कि किसी को घर की चिन्ता नहीं रहती है। चाहे वो बूंढ़े माँ-बाप की देखभाल हो या बहनों की शादी या फिर बच्चों को अच्छी परवरिश वह सभी जिम्मेदारीयों को बखूबी निभाती है।
साधना श्रीवास्तव 
                         

Saturday, May 2, 2015

गाय कभी अपना दूध दही और पनीर किसी जाति या धर्म देख कर नही देती न बेचारे बैल जब खेतो में हल चलते तो ये नहीं खोजते की ये अनाज  कौन खायेगा ???????? …………………ये बेजुबान तो सब की सेवा करते फिर क्यों आज का मानव इतना स्वार्थी हो गया क्या हो गया है हमे